Saturday, September 9, 2017

चेहरा


इस शहर में आने से पहले भी मेने कई बार शहर बदले है। हर शहर में कई चेहरो से मुखातिब होने का मौका मिला पर खुशनसीबी से किसी शहर में कोई ऐसा चेहरा नही मिला जिस चेहरे के पीछे 2 चेहरे ना हो।

याद है मुझे कुछ चेहरे मिले थे उन गलियों में जहाँ मेने अपना बचपन बिताया था, वो चेहरे आज मेरे शहर में तो नहीं है पर वो चेहरे आज भी वहीं है जैसा पहली बार मैंने उनको देखा था, हां में मानता हूं कुछ बदल गया है जैसे उनकी नाक जो बहकर के बाहर आ जाया करती थी आज उस जगह पर उनके मूँछे उग आई है और कुछ की फ्रॉक की जगह अब टॉप ने ले ली है । पूरे साल मुझे दिवाली का इंतजार सिर्फ इसलिए नहीं रहता कि मैं फटाके चलाऊंगा ओर मिठाइयां खाऊंगा बल्कि मुझे तो इंतज़ार रहता है उन चेहरो से मिलने का जिनको देखते ही में वो बच्चा बन जाता हूं जो इस शहर में कभी नही बन पाता।

कुछ चेहरे मुझे कॉलेज में भी मिले थे , हां उनका बचपन मैंने नहीं देखा पर उनके मुंह से सुना जरूर था। शायद इसलिये , हां शायद इसलिए वो चेहरे भी मुझे मेरे गाँव की गलियों वाले चेहरों जैसे ही लगते हैं। हम सभी ने शहर बदल लिया हैं , दोस्त बदल लिए हैं पर आज भी मुझे कोई ऐसा चेहरा नही मिलता जैसा मुझे उन गलियों में मिला करता था जहाँ मेने अपना बचपन गुज़ारा है। शायद इसका कारण यही है कि इन सभी चेहरो का बचपन मुझे पता नहीं जो मुझे शहर में मिलते है।

कभी कभी इन चेहरों पर तरस आता है जो इन बड़े शहरों में रहते है। ये सभी उस बच्चे को भूल गए जो इस चेहरे में कही न कही छुपा हुआ हैं। मेरा मन करता है इन्हें बता दू की जिस चेहरे को ये अपना समझ रहे है वो इनका नहीं किसी ओर का है । ऐसा नहीं की मैंने कोशिश नहीं की हो इन्हें बताने की ओर उस बच्चे को बाहर लाने की जो इनके अंदर कहीं दबा हुआ है पर इनके चेहरों से अब सिर्फ मतलब की बू आती है और वो बच्चा जो इनके अंदर कभी हुआ करता था कबका मर चुका है और अब इन्हें यही चेहरा अच्छा लगता है।

शायद इसलिए, हां इसलिए मुझे शहरों से नफ़रत हैं जहाँ हर चेहरे के पीछे एक ओर चेहरा रहता है। 

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